बखिया भरकर भी न सिले
ये फटे हुए अस्तर ।
अँजुरी भर पानी की चाहत में
मृगजल पाया,
उजली इच्छाओं पर छाया
दुर्दिन का साया
ग्रहण लगी पूरनमासी में
सन्नाटों के स्वर ।
थाल सजाए इच्छाओं के
करते मंत्रोच्चार
हवन कुंड में धधक रहा है
आवेगों का ज्वार
यहाँ-वहाँ चुभते ही रहते
पीड़ा के नश्तर
बादल महलों पर ही बरसे
भूल झोपड़ी-द्वार
निर्जल आँखें बाट जोहतीं
कब हो द्वाराचार
दगाबाज मौसम निकला
धनवानों का चाकर